Tuesday, July 12, 2011

अ अहमदाबाद छे

एक निजी काम के सिलसिले में गत दिनों मेरा अहमदाबाद जाना हुआ था। रेलवे स्टेशन से निकलने के बाद मैने एक ऑटो वाले को आवाज दी, जो देखने में उत्तर भारतीय (मेरे क्षेत्र का) लग रहा था। सर पे गमछा बांधे वो मेरे करीब आया। इससे पहले कि वह कुछ बोलता मैने अपने इलाहाबादी अंदाज में बोला लाल दरवाजा चलिहौ, किते पैसे लेबो। उसने मुझे बड़े गौर से देखा जैसे मैने कोई गलती कर दी हो। फिर वो मुस्कुराया और बोला अ अहमदाबाद छे। मेरी समझ में उसकी बात नहीं आई और मैने भी न चाहते हुए मुस्कुरा दिया। खैर उससे बात नहीं बनी और जैसे- तैसे मै लाल दरवाजा पहुंचा।

लाल दरवाजा से मैने अपने एक मित्र कुमार गौरव को फोन किया। उनका दफ्तर नजदीक ही था सो मुझे ज्यादा इंतजार नहीं करना पड़ा। फिर उनके साथ उनके कार्यालय में थोड़ी देर आराम और लंच करने के बाद हम दोनों शहर घूमते हुए गांधी नगर के लिए निकले। सबसे पहले हम सिद्धी सैय्यद की जाली देखने गए। मुगल शैली में बनी यह जाली विश्व प्रसिद्ध है। इस दिन यहां दर्शकों की संख्या कम थी। इसका कारण शायद तेज गर्मी रही होगी। सूरज सर पे था और पारा भी ४२ के पार। इस दिन मुझे किसी की कमी खल रही थी तो वह था मेरा कैमरा जो मै न ले जा सका था। इस जाली की नक्काशी देखने के बाद हर कोई यही कहता होगा कि वाकई लाजवाब रहे होंगे वह कलाकार जिसने इसको गढ़ा होगा। यहां से निकलने के बाद हम एक टी स्टाल के सामने से गुजरे तो गौरव ने इसकी खासियत बताई। मेरे मन में भी देखने की लालसा जागी और हम लोग अंदर की तरफ बढ़ गए और कोने की एक सीट पर जगह ले ली। दुकान के बाहर खड़े युवाओं को देखकर अनायास की छात्र जीवन की यादें ताजा हो गई। कभी हम लोग भी ऐसे ही राम सिंह की दुकान के बाहर महफिल लगाया करते थे। वह देखने में दुकान कम और दरगाह ज्याद लग रही थी। गौरव दशकों पुरानी उस दुकान की खासियत बता रहा था। दुकान के अंदर ही छोटी बड़ी कई मजारें थी जो हरे रंग की चादरों से ढ़की थी कुछ पर इबादत के फू ल भी थे। दुकान के भीतर ही तीन दरख्त पेड़ भी थे। इतने दरख्त पेड़ शायद अब नहीं होंगे। तब तक एक लड़के ने पूछा तमे का सू मतलब आपको क्या चाहिए। गौरव ने चाय का आर्डर दिया। इतना ही नहीं यह दुकान महरूम मकबूल फिदा हुसैन की पसंदीदा जगह थी। उनकी भेंट की हुई पेन्टिंग आज भी इस दुकान की शोभा बढ़ा रही है। लोग उसके नीचे बैठकर चाय का आनंद लेते हैं। इतने में चाय आ गई। वाकई बड़ी ही टेस्टी थी। लेकिन चाय पीने के अंदाज कुछ जुदा था गुजरातियों की तरह मैने भी चाय को रकाबी (प्याली) में डालकर पिया। लोगों को देखकर मुझे हंसी भी आ रही थी और अपना अंदाज देखकर मजा भी आ रहा था।
सफर में काफी थक चुका था इसलिए उसके बाद हम लोगों ने गांधी नगर के लिए बस पकड़ ली। रास्ते में गौरव मुझे हर उस जगह से परिचित करा रहा था जिसे देखने लोग बाहर से आते हैं।
हमारी यत्रा नेहरू ब्रिज से शुरू हुई, जहां साबर मती
के दोनों किनारों को सीमेंट की ऊंची- ऊंची दीवरों से बांध दिया गया। यहां साबरमती रिवर फं्रट के नाम से एक परियोजना बनाई जा रही है जिसके तहत एक नया शहर बसाया जाएगा। यहां से हम इनकम टैक्स सर्किल होते हुए आग बढ़े। आगे गुजरात विद्यापीठ मिला जहां आज भी सुबह के वक्त विद्यार्थियों को चरखा कातना सिखाया जाता है। इसके सुभाष चौराहा, चिमनबाई पुल, गांधी आश्रम होते हुए हम गांधी नगर पहुंचे। बस स्टैंड से उतरने के बाद थोड़ी दूर की यात्रा हमें पैदल तय करनी थी। सड़क को पार करते ही हम कालोनी में प्रवेश कर गए। प्रवेश के साथ ही एक खुशनुमा एहसास हुआ मानों हम किसी हसी वादियों में आ गए हों। दोनों तरफ छायादार वृक्ष। पेड़ों की उन घनी छाया में गजब की ठंडक मिली। बंदर पेड़ों की शाखाओं पर लटक कर मस्ती कर रहे थे। थोड़ा आगे तो बचपन की यादें ताजा हो गईं। एक अरसे के बाद मैनें कोयल की कूक सुनी। बचपन में बड़ा मजा आता था जब हम कोयल की कूक में कूक मिलते थे। मन तो यहां भी हुआ लेकिन बालकनी में खड़े कुछ लोगों को देख शर्म सी आ गई। इस बीच (ढलती दोपहरी में) मैने झींगुर की भी आवाजें सुनी। मस्ती और ठहाकों के बीच घर आ चुका था।
दूसरे दिन काम के लिए जल्दी ही घर से निकलना पड़ा शाम तक अपना काम निपटाया और फिर निकल पड़े बाकी शहर को घूमने। इस दौरान हम ज्यादा नहीं घूम सके क्यों कि इसी दिन मुझे वापस राजस्थान लौटना था। खैर हम रोड किनारे बैठकर बड़े दिनों के बाद एक अच्छी शाम बिताई। आते जाते लोगों को निहारा, बड़ दिनों के बाद खुल कर हंसा, एक ढ़लती शाम का लुत्फ उठाया।

Saturday, March 5, 2011

जित देखो तित मुद्दे

पिछले कई दिनों से कुछ लिखने के लिए सोच रहा था। लेकिन फिर वही समय और मुद्दों का अभाव। आज सुबह जब समाचार पत्र पर नजर डाली तो मुझे मुद्दा मिल गया वह भी मुद्दों का मुद्दा। खैर बात यह है कि आज एक प्रतिष्ठित समाचार पत्र में स्थानीय नेताओं की टिप्पणी को प्रकाशित किया गया था। वह भी बजट जैसे बड़े विषय पर। टिप्पणी में कुछ नेताओं ने बजट को गरीबों का हितैषी बताया था तो कुछ ने गरीबों का विरोधी बताया था। किसी राष्ट्रीय मुद्दे पर टिप्पणी करना अब स्थानीय नेताओं की नियमित दिनचर्या बन गई है। बड़ी बात यह थी कि टिप्पणी करने वाले ये नेता अपने घर के महीने भर का बजट नहीं बता सकते थे जो आम बजट के ही दिन बजट पर टिप्पणी कर रहे थे। एक पत्रकार साथी ने बताया कि ये सभी छपास के लालची होते हैं सो अपनी पे्रस विज्ञप्ति जारी कर उसे अखबार के दफ्तरों में पहुंचाते हैं।
खैर अब मुद्दे पहले जैसे नहीं रहे। अब मुद्दों का राजनीतिकरण हो चुका है। लगभग हर मुद्दे राजनीति के ही इर्द गिर्द घूमते हैं। पहले मुद्दे पूर्व निर्धारित हुआ करते थे। उनका एक सामाजिक ताना- बाना होता था लेकिन अब वह बात नहीं रही। अब तो मुद्दों को कई स्तरों पर बांटा जाता है जैसे ग्राम पंचायत स्तर के मुद्दे, मुहल्ले के मुद्दे फिर राज्य स्तरीय मुद्दे और राष्ट्रीय मुद्दे आदि आदि । वर्ततान में मूलत: मुद्दों की शुरुआत तो परिवार से ही होती है। फिर मोहल्लों के मुद्दे जैसे किसकी बहू कितनी तेज है या फिर कौन सी सास अपनी बहू को ज्यादा परेशान करती है। कौन मंहगे कपड़े खरदता है। मोहल् ले के ऊपर के मुद्दों में राजनीति का हस्तक्षेप शुरु हो जाता है। पीएम ने अपने विदेशी दौरे में क्या क्या बोला कितनी बार हंसा कितनी बार चेहरे पर मायूसी आई। देश का सवोच्च नागरिक मुस्लिम होते हुए यदि मंदिर गया तो मुद्दा। पीएम ने इफ्तार की पार्टी दी तो मुद्दा। अब हाल की बात ले लीजिए किसी मंत्री ने ने राष्ट्रपति पर टिप्पणी की तो मुद्दा जब पद से इस्तीफा दिया तो मुद्दा। हमारा देश भारत ही मुद्दों का देश है। देश के साहित्य और यहां बन रही फिल्में भी मुद्दों से अछूती नहीं हैं। कुल मिलाकर मुद् दों के देश में बचना मुश्किल है जित देखो तित मुद्दे ही मुद्दे हैं।