Sunday, July 19, 2009

सरकार चलाये तीर तुक्का, जनता करे अजब टोटका

अंग्रेजो के दौर की ब्लैक एंड व्हाइट फिल्मे हो या फिर चाँद पर यान भेजने की तैयारी कर रहे भारत के मौजूदा दौर की फिल्मे दोनों में कम से कम एक बात तो परंपरागत ही नजर आती है. वो ये के जब भी किसान और खेती से जुडी कहानी होती है तो अच्छी फसल के लिए किसान काले मेघा के बरसने के लिए इन्द्र देवता की गुहार जरुर लगाते है. कहते हैं फिल्मे समाज का आइना होती है तो फिर इससे यह साबित हो जाता है की २१वी सदी के भारत में भले ही बड़े बड़े बदलाव आ गए हो किन्तु हमारे किसान भाइयों की नीयत नहीं बदली. आज भी भारतीय किसान खेती के लिए मानसून पर निर्भर है. जिस साल मानसून अच्छा रहता है उस साल किसानो के चेहरे पर सुकून की लकीरे साफ पढी जा सकती है. लेकिन जब मानसून मुह मोड़ लेता है तब किसानो के सामने रोटी के लाले पड़ जाते है. समस्या यही ख़तम नहीं होती है यही से शुरू होता है सरकारी खजाने में सेंध लगाना क्यों की जब खाद्धान संकट होगा तो भरी मात्रा में अनाजो की खरीद फ़रोख्त होगी और सेंध लगाने का कम करेगे हमारे प्रतिनिधि यानि की जनता के सेवक.
वैसे इस बार मानसून आने में बड़ी देर कर दी और आया भी तो रास्ते में ठिठक कर सूखे की आशंका को जन्म दे गया. इससे चिंता में डूबे पूरे देश के लोगो ने टोटकों का सहारा लेकर इन्द्र देवता को मानाने के पुरजोर कोशिश कर दी. भोपाल में वर्षा को बुलाने के लिए महिलाओ ने गजरथ महोत्सव का आयोजन कर डाला, अलाहाबाद नारीवादी के बच्चों ने कीचड में स्नान किया और तो और गुआहाती में लोगो ने मेढक और मेढकी की शादी करा कर टोटकों की सारी हदे पार कर दी.
हालत ऐसे हैं की बारिश कम हो ज्यादा दोनों ही सूरतो में किसानो के उम्मीदों पर पानी फिरता है. मौसम बिभाग भी जिस तरह की भविष्यवाणी करता है वो किसी तीर तुक्के से कम नहीं है अभी चंद दिनों पहले की बात है शाम के समय लगभग आधी दिल्ली में बारिश हुई और रात के बुलेटिन में कहा गया की पूरी दिल्ली में मौसम साफ रहा. वजह परंपरागत तकनीक,

Wednesday, July 8, 2009

भविष्य की हिंदी व हिंदी का भविष्य


आजकल भारत में ‘हिंदी के भविष्य’ को लेकर बहुत सी परिचर्चाएं, गोष्ठियों व कार्यशालाओं का आयोजन किया जा रहा है।
अपनी मात्रि भाषा को लेकर हम भारतीयों में जो गर्व, जो उत्साह होना चाहिए उसकी बहुत कमी है। हम हिंदी के ऩाम पर भाषणबाजी तो खूब करते हैं पर न ही उतना श्रम और न ही उतना कर्म करते हैं । हिंदी की सरकारी दावत तो खूब उड़ाई जाती है पर शिरोधार्य तो अँग्रेजी ही है।
हमारा नेता, हमारा लेखक और बुद्धिजीवी-वर्ग हिंदी की दुहाई तो बहुत देता है परन्तु अपने कुल-दीपकों को अँग्रेजी स्कूलों और विदेशों में ही शिक्षा दिलवाना चाहता है। सच ही कहा गया है की ‘हाथी के दांत, खाने के और दिखाने के और।’
हमें अँग्रेजी बोलने, पढ़ने-लिखने और अँग्रेजियत दिखाने में अपना बड़प्पन दिखाई देता है किंतु सच तो यह है कि यह हमारी मानसिक हीनता ही है।
भारतेन्दु हरिश्चन्द्र ने स्वदेश-प्रेम, स्वभाषा और स्व-संस्कृति की गरिमा पर जोर देते हुए कहा है-
निज भाषा उन्नति अहै; सब उन्नति को मूल। बिन निज भाषा-ज्ञान के, मिटत न हिय को सूल।। अँग्रेजी पढ़ि के जदपि, सब गुन होत प्रविन। पै निज भाषा-ज्ञान बिन, रहत हीन के हीन।।
अँग्रेजी पढ़िए, जितनी और अधिक भाषाएं सीख सकें सीखें किंतु अपनी भाषा को हीन करके या बिसराने की कीमत पर कदापि नहीं।