Saturday, March 5, 2011

जित देखो तित मुद्दे

पिछले कई दिनों से कुछ लिखने के लिए सोच रहा था। लेकिन फिर वही समय और मुद्दों का अभाव। आज सुबह जब समाचार पत्र पर नजर डाली तो मुझे मुद्दा मिल गया वह भी मुद्दों का मुद्दा। खैर बात यह है कि आज एक प्रतिष्ठित समाचार पत्र में स्थानीय नेताओं की टिप्पणी को प्रकाशित किया गया था। वह भी बजट जैसे बड़े विषय पर। टिप्पणी में कुछ नेताओं ने बजट को गरीबों का हितैषी बताया था तो कुछ ने गरीबों का विरोधी बताया था। किसी राष्ट्रीय मुद्दे पर टिप्पणी करना अब स्थानीय नेताओं की नियमित दिनचर्या बन गई है। बड़ी बात यह थी कि टिप्पणी करने वाले ये नेता अपने घर के महीने भर का बजट नहीं बता सकते थे जो आम बजट के ही दिन बजट पर टिप्पणी कर रहे थे। एक पत्रकार साथी ने बताया कि ये सभी छपास के लालची होते हैं सो अपनी पे्रस विज्ञप्ति जारी कर उसे अखबार के दफ्तरों में पहुंचाते हैं।
खैर अब मुद्दे पहले जैसे नहीं रहे। अब मुद्दों का राजनीतिकरण हो चुका है। लगभग हर मुद्दे राजनीति के ही इर्द गिर्द घूमते हैं। पहले मुद्दे पूर्व निर्धारित हुआ करते थे। उनका एक सामाजिक ताना- बाना होता था लेकिन अब वह बात नहीं रही। अब तो मुद्दों को कई स्तरों पर बांटा जाता है जैसे ग्राम पंचायत स्तर के मुद्दे, मुहल्ले के मुद्दे फिर राज्य स्तरीय मुद्दे और राष्ट्रीय मुद्दे आदि आदि । वर्ततान में मूलत: मुद्दों की शुरुआत तो परिवार से ही होती है। फिर मोहल्लों के मुद्दे जैसे किसकी बहू कितनी तेज है या फिर कौन सी सास अपनी बहू को ज्यादा परेशान करती है। कौन मंहगे कपड़े खरदता है। मोहल् ले के ऊपर के मुद्दों में राजनीति का हस्तक्षेप शुरु हो जाता है। पीएम ने अपने विदेशी दौरे में क्या क्या बोला कितनी बार हंसा कितनी बार चेहरे पर मायूसी आई। देश का सवोच्च नागरिक मुस्लिम होते हुए यदि मंदिर गया तो मुद्दा। पीएम ने इफ्तार की पार्टी दी तो मुद्दा। अब हाल की बात ले लीजिए किसी मंत्री ने ने राष्ट्रपति पर टिप्पणी की तो मुद्दा जब पद से इस्तीफा दिया तो मुद्दा। हमारा देश भारत ही मुद्दों का देश है। देश के साहित्य और यहां बन रही फिल्में भी मुद्दों से अछूती नहीं हैं। कुल मिलाकर मुद् दों के देश में बचना मुश्किल है जित देखो तित मुद्दे ही मुद्दे हैं।